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Thursday 12 March 2015

Bhojan ka prabhav

भोजन का प्रभाव

भोजन नियम से, मौन रहकर एवं शांतचित्त होकर करो। जो भी सादा भोजन मिले, उसे भगवान का प्रसाद समझकर खाओ।
"भोजन पूर्ण रूप से सात्त्विक होना चाहिए। राजसी एवं तामसी आहार शरीर एवं मन-बुद्धि को रुग्ण तथा कमजोर बनाता है। जैसा खाये अन्न, वैसा बने मन।"
सुखी रहने के लिए स्वस्थ रहना आवश्यक है। शरीर स्वस्थ तो मन स्वस्थ। शरीर की तंदरुस्ती भोजन, व्यायाम आदि पर निर्भर करती है। भोजन कब एवं कैसे करें, इसका ध्यान रखना चाहिए। यदि भोजन करने का सही ढंग आ जाय तो भारत में कुल प्रयोग होने वाले खाद्यान्न का पाँचवाँ भाग बचाया जा सकता है। भोजन नियम से, मौन रहकर एवं शांतचित्त होकर करो। जो भी सादा भोजन मिले, उसे भगवान का प्रसाद समझकर खाओ। हम भोजन करने बैठते हैं तो भी बोलते रहते हैं। ʹपद्म पुराणʹ में आता है कि ʹजो बातें करते हुए भोजन करता है, वह मानो पाप खाता है।ʹ कुछ लोग चलते-चलते अथवा खड़े-खड़े जल्दबाजी में भोजन करते हैं। नहीं। शरीर से इतना काम लेते हो, उसे खाना देने के लिए आधा घंटा, एक घंटा दे दिया तो क्या हुआ ? यदि रोगों से बचना है तो खूब चबा-चबाकर खाना खाओ। एक ग्रास को कम-से-कम 32 बार चबायें। एक बार में एक तोला (लगभग 11.5 grams) से अधिक दूध मुँह में नहीं डालना चाहिए। यदि घूँट-घूँट करके पियेंगे तो एक पाव दूध भी ढाई पाव जितनी शक्ति देगा। चबा-चबाकर खाने से कब्ज दूर होती है, दाँत मजबूत होते हैं, भूख बढ़ती है तथा पेट की कई बीमारियाँ भी ठीक हो जाती हैं।
भोजन पूर्ण रूप से सात्त्विक होना चाहिए। राजसी एवं तामसी आहार शरीर एवं मन बुद्धि क रूग्ण तथा कमजोर बनाता है। भोजन करने का गुण शेर से ग्रहण करो। न खाने योग्य चीज को वह सात दिन तक भूखा होने पर भी नहीं खाता। मिर्च मसाले कम खाने चाहिए। मैं भोजन पर इसलिये जोर देता हूँ क्योंकि भोजन से ही शरीर चलता है। जब शरीर ही स्वस्थ नहीं रहेगा तो साधना कहाँ से होगी। भोजन का मन पर भी प्रभाव पड़ता है। इसीलिए कहते हैं- "जैसा खाये अन्न, वैसा बने मन।" अतः सात्त्विक एवं पौष्टिक आहार ही लेना चाहिए।
मांस, अंडे, शराब, बासी, जूठा, अपवित्र आदि तामसी भोजन करने से शरीर एवं मन-बुद्धि पर घातक प्रभाव पड़ता है, शरीर में बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। बुद्धि स्थूल एवं जड़ प्रकृति की हो जाया करती है। ऐसे व्यक्तियों का हृदय मानवीय संवेदनाओं से शून्य बन जाता है।
खूब भूख लगने पर ही भोजन करना चाहिए। खाने का अधिकार उसी को है जिसे भूख लगी हो। कुछ नासमझ लोग स्वाद लेने के लिए लगातार खाते रहते हैं। पहले का खाया हुआ पूरा पचा न पचा कि ऊपर से दुबारा ठूँस लिया। ऐसा नहीं करें। भोजन स्वाद लेने की वासना से नहीं अपितु भगवान का प्रसाद समझकर स्वस्थ रहने के लिए करना चाहिए।
बंगाल का सम्राट गोपीचंद संन्यास लेने के बाद जब अपनी माँ के पास भिक्षा लेने आया तो उसकी माँ ने कहाः "बेटा। मोहनभोग ही खाना।" जब गोपीचंद ने पूछाः "माँ। जंगलों में कंदमूल-फल एवं रूखे-सूखे पत्ते मिलिजिएंगे, वहाँ मोहनभोग कहाँ से खाऊँगा ?" तब उसकी माँ ने अपने कहने का तात्पर्य यह बताया कि "जब खूब भूख लगने पर भोजन करेगा तो तेरे लिए कंदमूल-फल भी मोहनभोग से कम नहीं होंगे।"
चबा-चबाकर भोजन करें, सात्त्विक आहार लिजिएं, मधुर व्यवहार करें, सभी में भगवान का दर्शन करें, सत्पुरुषों के सान्निध्य में जाकर आत्मज्ञान को पाने की इच्छा करें तथा उनके उपदेशों का भलीभाँति मनन करें तो आप जीते जी मुक्ति का अनुभव कर सकते हैं।
अजीर्णे भोजनं दुःखम्। ʹअजीर्ण में भोजन ग्रहण करना दुःख का कारण बनता है।ʹ
"जो विद्यार्थी ब्रह्मचर्य के द्वारा भगवान के लोक को प्राप्त कर लेते हैं, फिर उनके लिए ही वह स्वर्ग है। वे किसी भी लोक में क्यों न हों, मुक्त हों।"
Related Links:  आहार चिकित्सा   |  खाद्य चिकित्सा

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